बलहारी मैं बलहारी मैं गुरु चरणकमल पर वारी मैं ॥ टेक ॥
तिमर भरे दोऊ नैना मरे चहुं दिश छाये घोर अंधेरे
सतगुरु अंजन भरभर गेरे निर्मल नजर उघारी मैं ॥ १
मैं परदेसन राह भुलानी बन जंगल में फिरूं हिरानी
सतगुरु मिलया रहबर जानी सीधे मारग डारी मैं ॥ २
गहरी नदिया बेग अपारा डूबत जाय रही मझधारा
देकर अपना बांह सहारा पलमें पार उतारी मैं ॥ ३
दुस्तर माया जाल फसाई सतगुरु मेरी बंध छुड़ाई
ब्रम्हानंद स्वरुप समाई घटघट जोत निहारी मैं ॥ ४