जन को दीनता जब आवै। टेक
रहै अधीन दीनता भाषै, दुरमति दूरि बहावै।
सो पद देवं दास अपने को, ब्रम्हादिक नहिं पावै। १
औरन को ऊँचो करि जानै, आपुन नीच कहावै।
तुमते अवधू साँच कहत हौं, सो मेरे मन भावै। २
सब घट एक ब्रम्ह जो जानै, दुबिधा दूर बहावै।
सकल भर्मना त्यागि के अवधू, एक गुरु के गुन गावै। ३
होइ लौलीन प्रेम लौ लावै, सब अभिमान नसावै।
सत्त शब्द में र है समाई, पढ़ि गुनि सब बिसरावै। ४
गुरु की कृपा साधु की संगत, जोग युक्ति ते पावै।
कहैं कबीर सुनो हो साधो, बहुरि न भवजल आवै। ५