काम की अग्नि में जीव यों जलत है, ग्यान बिचार कछु नाहिं सूझै। १
खोया परतीत अरु बोय बाजी दई, सब्द मानै नहीं काल बुझै। २
झूठ को थापि के साँच को ना थापै, झूठ की पक्ष फिर गहै गाढ़ी। ३
कहैं कबीर अन्ध चेते नहीं, काल की चोट यों खाय ठाढ़ी। ४
काम की अग्नि में जीव यों जलत है, ग्यान बिचार कछु नाहिं सूझै। १
खोया परतीत अरु बोय बाजी दई, सब्द मानै नहीं काल बुझै। २
झूठ को थापि के साँच को ना थापै, झूठ की पक्ष फिर गहै गाढ़ी। ३
कहैं कबीर अन्ध चेते नहीं, काल की चोट यों खाय ठाढ़ी। ४