जग में तुम सम कौन अनारी।
चहत बुझावन काम अग्नि को, विषय भोग घृत डारी। टेक
रहो सदा झूठे झगरन में, शठ गुरु ज्ञान बिसारी।
खाओ पियो अघाय पेट भर, सोयो पाँव पसारी। १
तृष्णा के वश भटकत डोल्यो, निशि वासर झख मारी।
छल प्रपंच कपट फैलावत, उमरि गमाई सारी। २
कबहुँ न सुमति आइ उर तन कहूँ, देख्यो आँख उघारी।
अन्त समय यमदूत आय के, का गति करहिं हमारी। ३
अजहुँ मान सीख संतन की, भाव भक्ति उर धारी।
गहु गुरु शरण तरण भवसागर, कहैं कबीर पुकारी। ४