चंचल मन निशदिन भटकत है एजी भटकत है भटकावत है ॥ टेक ॥ जिम मर्कट तरु...
हरि तुम भक्तन के रखवारे सकल जगत के नित हितकारे ॥ टेक ॥ गज को पकड...
प्रभु तुम सब जग सर्जनहारे सकल शक्तिमय पिता हमारे ॥ टेक ॥ भूमि पर्वत नदियां सागर...
प्रभु तुम सकल जगत के स्वामी घटघट के नित अंतरयामी ॥ टेक ॥ निर्मल पूरण रूप...
प्रभु कर सब दुःख दूऱ ह्मारे शरण पडे हम दास तुमारे ॥ टेक ॥ सकल जगत...
मैं तो रमता जोगी राम मेरा क्या दुनियां से काम॥ टेक ॥ हाडमांस से बनी पुतलिया...
तुं तो उडता पंछी यार तेरा कौन करे इतबार ॥ टेक ॥ नौ खिडकी का पिंजरा...
अब तो छोड़ जगत की लाल सारे सुमरो सर्जनहार ॥ बालापण खेलन में खोयो जोबन मोह्यो...
मनुवा सोचसमझ कर देखले रे नश्वर सब संसार ॥ राजा जावे रानी जावे जावे सब परिवार...
मनुवा उलटी तेरी रीत कीनी परदेसी से प्रीत ॥ टेक ॥ क्षण भंगुर यह काया तेरी...
बंसी का बजाना री सखी मैं कैसे छॊड़ूं आज ॥ टेक ॥ इस बंसी में सब...
बंसी का बज़ाना छोड़ दे रे नन्द महर के लाल ॥ टेक ॥ तेरी बंसरी रस...